कैंसर ट्रीटमेंट का मिसिंग लिंक-माइंड हीलिंग! साइको-ऑन्कोलॉजी बन रही है गेम-चेंजर

कैंसर एक ऐसा शब्द जो सुनते ही दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं। यह सिर्फ शरीर पर असर डालने वाली बीमारी नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक जीवन को भी गहराई से झकझोर देती है। अक्सर हम इलाज के नाम पर सर्जरी, कीमोथेरेपी और दवाओं की बात करते हैं, लेकिन इलाज का एक अहम हिस्सा होता है साइको-ऑन्कोलॉजी।

क्या है साइको-ऑन्कोलॉजी?

साइको-ऑन्कोलॉजी चिकित्सा विज्ञान की एक विशेष शाखा है जो कैंसर और मानसिक स्वास्थ्य के बीच के गहरे संबंध को समझती है। साइको-ऑन्कोलॉजी कैंसर के मरीजों और उनके परिवारों के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्वास्थ्य की देखभाल पर केंद्रित होती है। कैंसर सिर्फ शरीर को ही नहीं, बल्कि मन को भी गहराई से प्रभावित करता है। इसी भावनात्मक बोझ को कम करने में साइको-ऑन्कोलॉजी बड़ी भूमिका निभाती है। यह सिर्फ “काउंसलिंग” नहीं है, बल्कि इससे कहीं अधिक व्यापक और गहन प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य है – कैंसर के कारण उत्पन्न मानसिक तनाव, डर, चिंता, अवसाद और भावनात्मक अस्थिरता को पहचानना और उसे कम करना है। Psycho-oncology न सिर्फ मरीज को बल्कि उसके परिवार को भी मानसिक रूप से मजबूत बनाने का कार्य करती है, ताकि वे इस कठिन समय का सामना बेहतर ढंग से कर सकें। एक भारतीय अध्ययन के अनुसार: 62% कैंसर मरीजों में चिंता, तनाव (Anxiety) , 63% में अवसाद (Depression) पाया गया है।

मानसिक लक्षण भी गंभीर
कई बार मरीज को मानसिक पीड़ा के लक्षण शारीरिक रूप से नजर नहीं आते — इसलिए लोग अक्सर उन्हें नजर अंदाज कर देते हैं। जिनमें निम्न प्रमुख लक्षण शमिल हैं।
• बार-बार उदासी या रोने का मन होना
• निरंतर चिंता या डर
• छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आना
• खुद को अकेला या बेकार महसूस करना
• “मेरे साथ ही क्यों?” जैसी नकारात्मक सोच
• नींद या भूख में बड़ा बदलाव
• बिना कारण थकान, सिरदर्द, पेटदर्द
• लोगों से मिलना-जुलना बंद कर देना

यदि ये लक्षण दो हफ्तों से अधिक समय तक बने रहें, तो यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरे का संकेत हो सकता है और ऐसे में साइको-ऑन्कोलॉजिस्ट की मदद लेना आवश्यक हो जाता है।

इलाज के हर चरण में जरूरी है भावनात्मक सहारा
• कैंसर का पता चलते ही – जब मरीज और परिवार सदमे, डर और इनकार की स्थिति में होते हैं।
• इलाज के दौरान – मरीज को बार-बार चिंता, निराशा या डिप्रेशन महसूस हो रहा हो। इलाज के साइड इफेक्ट्स (जैसे बाल झड़ना, थकान, दर्द) से मानसिक रूप से परेशान हो।
• इलाज के बाद – जब मरीज को यह डर सताता है कि कहीं बीमारी दोबारा न लौट आए।
• अंतिम चरण में – जब इलाज संभव नहीं होता और मरीज व परिवार को जीवन की अंतिम अवस्था से जूझना होता है।

क्यों जरूरी
हर स्थिति में साइको-ऑन्कोलॉजी टीम मरीज और परिवार के लिए एक भावनात्मक सहारा बनती है। हमारा मन सिर्फ सोचने का केंद्र नहीं है, यह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) को भी प्रभावित करता है। सकारात्मक सोच, भावनात्मक संतुलन और मानसिक शांति से शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता बेहतर होती है। वहीं लंबे समय तक चिंता, डर और तनाव रहने पर शरीर कमजोर पड़ सकता है। इस विषय को विज्ञान में साइको-न्यूरो इम्युनोलॉजी कहा जाता है — जो यह अध्ययन करता है कि मनोभावनाएं शरीर की प्रतिरक्षा पर कैसे असर डालती हैं। कैंसर के मरीजों की देखभाल करने वाले परिजन (caregivers) अक्सर अपने दर्द को चुपचाप सहते हैं। वे “मजबूत” दिखने की कोशिश में खुद को भूल जाते हैं, लेकिन उनके मन में भी चलते हैं डर, थकावट, अपराधबोध और अकेलापन। ध्यान रखें, एक थका हुआ और भावनात्मक रूप से टूटा हुआ परिवार, मरीज की मदद ठीक से नहीं कर सकता। इसलिए साइको-ऑन्कोलॉजी सेवाएं परिजनों के लिए भी उतनी ही आवश्यक हैं। आज भी बहुत से लोग कैंसर को मौत की सज़ा समझते हैं या इससे जुड़ी बातों से कतराते हैं। खासकर स्तन या गर्भाशय जैसे अंगों से जुड़े कैंसर में लोग शर्म या कलंक का भाव रखते हैं। कई मरीज सोचते हैं, “अगर मैं यह बात सबको बताऊंगा, तो लोग मुझसे डरेंगे या मुझ पर दया करेंगे।” यह चुप्पी उन्हें और अकेला कर देती है। लेकिन सच यह है कि आज के दौर में कैंसर कई बार पूरी तरह इलाज योग्य बीमारी है। डर और तकलीफ की बातें छिपाने से नहीं, बल्कि बात करने से हल होती हैं। बात करने से सही सहायता मिलती है, मरीज अकेला महसूस नहीं करता और समाज संवेदनशील बनता है।

: डॉ. आरती होता, सीनियर साइको ऑन्कोलॉजिस्ट,
  महात्मा गांधी अस्पताल, जयपुर

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